शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

भूलों सभी को मगर माँ-बाप को भूलना नहीं, उपकार अगणित हैं उनके बात यह भूलना नही।"


सोचा जाये तो कितनी बड़ी विडम्बना है की आजीवन अपने बच्चों को समर्पित, सामाजिक, नैतिक, आर्थिक सरंक्षण देने वाले यह बुजुर्ग स्वम अपने लिए सरकार का मुंह ताकने के लिए विवश हैं। क्यूंकि आज न तो उन्हें अपने बच्चों से कोई आशाएं रह गयी हैं और न ही कोई अपेक्षाएं। शायद कुछ बरसों पहले तक स्थिति इतने गंभीर नही थी। पहले बुजुर्गों को न केवल अपने परिवार से बल्कि समाज से भी वंचित आदर सम्मान मिलता था। किसी भी शुभ कार्य में उनकी राय व आशीर्वाद दोनों ही महत्वपूर्ण होता था। इनका सर पे हाथ होने से बड़ा संबल मिलता था। फिर आचानक इतना बदलाव क्युय आ गया की बरसों से चली आ रही भारतीय संस्कृति की नीवं जर्जर हो गयी? और बुजुर्गों को अवांछित महसूस कराया जाने लगा। आज वही घर के बड़े बुजुर्ग घर के किसी पुराने सामान की भांति अपेक्षित समझे जाते हैं। क्यूँ आज उनकी उपयोगी अनुभव दकियानूसी बन गए हैं तथा क्यूँ उन्हें बार बार यह एह्सास्द कराया जाता है की वे जरुरत से ज्यादा समय तक जी रहे हैं? इन् प्रश्नों का उत्तर बस यही है की आज हर एक व्यक्ति की नजरों में उसके मूल्यों से ज्यादा कीमत उसके हितों की है। वर्तमान भौतिकतावादी युग में प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने उप्कर्मो इस कदर उलझा है की उससे अपने स्वार्थ से इतर कुछ दिखाई ही नही देता और न ही इसके अलावा कुछ सोचना भी चाहता है। उसके अन्दर से संवेदना, मानवता अवं परोपकार रूपी रस सुख चूका है और वह अन्दर से बिलकुल खोखला होकर एक ठुन्था वृक्ष बन चुका है। वह इतना कठोर बन चुका है की उसे अपने जन्मदाता अपने माता पिता की संवेदनाओं को समझने की न तो कोई इचा है और न ही उनके सुख दुःख से कोई सरोकार। अपने गृहस्थ जीवन में व्यस्त आज के सपूत पाने माता पिता को या तो घर से पूरी तरह निष्कासित कर देते हैं या उन्हें साथ रखकर छोटे बचों की देखभाल, घर की पहरेदारी आदि जैसे काम करवाकर उनका "सही इस्तेमाल" करते हैं। कुछ होनहार सपूत तो वृधाश्रमों में अपने माता पिता को पहुंचा कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं लेकिन वह ये भूल जाते हैं की एक दिन वह भी माता पिता बनेगें और बुजुर्ग होने पर उनके अपने बच्चें भी उनसे ऐसा ही बर्ताव कर सकते हैं। तब उनपर क्या गुजरेगी? कहा भी गया है-

"संतान से सेवा चाहो तो संतान बन सेवा करो,
सेवा बिना सब व्यर्थ है सत्य यह भूलना नहीं।
भूलों सभी को मगर माँ-बाप को भूलना नहीं,
उपकार अगणित हैं उनके बात यह भूलना नही।"


उम्र के आखिरी पड़ाव में आकर जन्हा व्यक्ति की इन्द्रियाँ व् अंग निष्क्रिये हो जाते हैं, दुनिया जहाँ के सारा मोह भंग हो जाता है और समस्त मोह माया व्यर्थ प्रतीत होती है। ऐसे में सरे रिश्ते नाते बेमानी से लगने लगते हैं सिवाए अपने बच्चों के। जिनके चेहरे पर मुस्कान खिलने के लीये उन्होंने पूरी जिंदगी खुद अभावों में काट दी ताकि बचा पद्लिख कर कुछ बन सके, और जब जीवन भर अपने माता पिता पर आश्रित रहने वाले ऐसे बच्चें ही बुदापे में उनकी लाठी बनाने से मुकर जायें और आशय तक देने में हिचकिचाएं तो उनकी वेदना वास्तव में कष्टदायी होती होगी। ऐसे में एक सभ्य समाज में रहने का दावा करने वाले हम अपने बुजुगों को अपनी जीवन धरा से अलग कट कर रहने से रोक नही सकते? क्या केवल बस में एक दो सीट बुजुर्गों के लिए आरक्षित करवा कर या वृधाश्रमों का निर्माण करवाकर हम उनके प्रति अपने दायित्वों से पल्ला झड सकते हैं? क्या इतने भर से हमारे अपने बड़ों के प्रति हमारी निष्ठां की इतिश्री हो जाती है? इन् प्रश्नों का जवाब खोजे जाने की जरुरत है।
(पब्लिक सत्ता में ७ फरबरी, 200७ को प्रकाशित लेख के अंश )

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