सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

ये नदी मुझे बहुत भाती है.....


कोई बरसों पुराना नाता भी नहीं....
न इसके किनारे बचपन मेरा बिता है...
न ही इसे निहारते हुए संग किसी के,
कोई सपना हसीं देखा है...

फिर न जाने क्या वजह है
ये सरल सलिला...
मुझे इतना क्यूँ भाती है...
कल-कल करती, अनवरत बहती ये नदी...
मुझसे कुछ तो कहना चाहती है...

कई पड़ाव पार कर, कई खरपतवारों को साफ़ कर
इसने अपनी राह बनायीं है...
दुर्गम रास्तों से गुजर कर, जटिलताओं से उबरकर
ये अपने सही पथ पर आयी है...

तब भी उतनी ही निर्मल... स्वच्छ... निश्छल...
शायद यही कहना चाहती है मुझसे
हाँ... बस यही मैंने इससे सीखा है।

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

आज मैंने खुशबू को छुआ....

हाट में बिकते खिलोनो में...
वहां सजती... खनखनाती चूड़ियों में..
कटे गन्नों और बताशों में..
झूलों पर झूलते बच्चों की उन्मुक्त हंसी में...
मेले में जहाँ-तहां रमते उस सौंधेपन को छुआ...
हाँ... मैंने आज खुशबू को छुआ....

गुजरते हुए गाँव की उन संकरी पगडंडियों से...
वहां बहती ठंडी-ठंडी बयार में...
लहराहते पोधो की क्यारियों में सिमटी...
गीली मिटटी से आती उस ताजगी को छुआ...
हाँ... मैंने आज खुशबू को छुआ...


(रांची के स्थानीय मुंडमा मेले से वापस लौटकर)

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

बस यूँ ही....


न जाने क्यूँ आज फिर मन हुआ के
शब्दों
के जरिये दिल में आये जज्बात साझा
करूँ
जो अनायास ही उभर आए हैं
आख़िर क्या वजह है ....??

शायद ... आज फिर लगा की
किसी को समझना या अपना समझने की भूल करना वाकई बेमानी है ...

यह जानने के बाद भी ...
फिर किसी ख़ास पर विश्वास करना
किसी से बेवजह उम्मीद करना ...
उसके सपनो... उसकी आकंशाओ... से ख़ुद को जोड़ना
उसकी हर कामयाबी और नाकामयाबी को अपना समझना....
उसके ग़मों और खुशियों को साझा करना ....

और ख़ुद को यह समझाना की यह शख्स
जिंदगी की हर मोड़ पर हमारे साथ है...
शायद इंसान की नियति बन गयी है...

यह समझते हुए भी की धोखा देना...
किसी की उमीदों को तोड़ना और ...
बीच राह में साथ छोड़ जाना भी इन्सान की ही आदत है.....!!

भूलों सभी को मगर माँ-बाप को भूलना नहीं, उपकार अगणित हैं उनके बात यह भूलना नही।"


सोचा जाये तो कितनी बड़ी विडम्बना है की आजीवन अपने बच्चों को समर्पित, सामाजिक, नैतिक, आर्थिक सरंक्षण देने वाले यह बुजुर्ग स्वम अपने लिए सरकार का मुंह ताकने के लिए विवश हैं। क्यूंकि आज न तो उन्हें अपने बच्चों से कोई आशाएं रह गयी हैं और न ही कोई अपेक्षाएं। शायद कुछ बरसों पहले तक स्थिति इतने गंभीर नही थी। पहले बुजुर्गों को न केवल अपने परिवार से बल्कि समाज से भी वंचित आदर सम्मान मिलता था। किसी भी शुभ कार्य में उनकी राय व आशीर्वाद दोनों ही महत्वपूर्ण होता था। इनका सर पे हाथ होने से बड़ा संबल मिलता था। फिर आचानक इतना बदलाव क्युय आ गया की बरसों से चली आ रही भारतीय संस्कृति की नीवं जर्जर हो गयी? और बुजुर्गों को अवांछित महसूस कराया जाने लगा। आज वही घर के बड़े बुजुर्ग घर के किसी पुराने सामान की भांति अपेक्षित समझे जाते हैं। क्यूँ आज उनकी उपयोगी अनुभव दकियानूसी बन गए हैं तथा क्यूँ उन्हें बार बार यह एह्सास्द कराया जाता है की वे जरुरत से ज्यादा समय तक जी रहे हैं? इन् प्रश्नों का उत्तर बस यही है की आज हर एक व्यक्ति की नजरों में उसके मूल्यों से ज्यादा कीमत उसके हितों की है। वर्तमान भौतिकतावादी युग में प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने उप्कर्मो इस कदर उलझा है की उससे अपने स्वार्थ से इतर कुछ दिखाई ही नही देता और न ही इसके अलावा कुछ सोचना भी चाहता है। उसके अन्दर से संवेदना, मानवता अवं परोपकार रूपी रस सुख चूका है और वह अन्दर से बिलकुल खोखला होकर एक ठुन्था वृक्ष बन चुका है। वह इतना कठोर बन चुका है की उसे अपने जन्मदाता अपने माता पिता की संवेदनाओं को समझने की न तो कोई इचा है और न ही उनके सुख दुःख से कोई सरोकार। अपने गृहस्थ जीवन में व्यस्त आज के सपूत पाने माता पिता को या तो घर से पूरी तरह निष्कासित कर देते हैं या उन्हें साथ रखकर छोटे बचों की देखभाल, घर की पहरेदारी आदि जैसे काम करवाकर उनका "सही इस्तेमाल" करते हैं। कुछ होनहार सपूत तो वृधाश्रमों में अपने माता पिता को पहुंचा कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं लेकिन वह ये भूल जाते हैं की एक दिन वह भी माता पिता बनेगें और बुजुर्ग होने पर उनके अपने बच्चें भी उनसे ऐसा ही बर्ताव कर सकते हैं। तब उनपर क्या गुजरेगी? कहा भी गया है-

"संतान से सेवा चाहो तो संतान बन सेवा करो,
सेवा बिना सब व्यर्थ है सत्य यह भूलना नहीं।
भूलों सभी को मगर माँ-बाप को भूलना नहीं,
उपकार अगणित हैं उनके बात यह भूलना नही।"


उम्र के आखिरी पड़ाव में आकर जन्हा व्यक्ति की इन्द्रियाँ व् अंग निष्क्रिये हो जाते हैं, दुनिया जहाँ के सारा मोह भंग हो जाता है और समस्त मोह माया व्यर्थ प्रतीत होती है। ऐसे में सरे रिश्ते नाते बेमानी से लगने लगते हैं सिवाए अपने बच्चों के। जिनके चेहरे पर मुस्कान खिलने के लीये उन्होंने पूरी जिंदगी खुद अभावों में काट दी ताकि बचा पद्लिख कर कुछ बन सके, और जब जीवन भर अपने माता पिता पर आश्रित रहने वाले ऐसे बच्चें ही बुदापे में उनकी लाठी बनाने से मुकर जायें और आशय तक देने में हिचकिचाएं तो उनकी वेदना वास्तव में कष्टदायी होती होगी। ऐसे में एक सभ्य समाज में रहने का दावा करने वाले हम अपने बुजुगों को अपनी जीवन धरा से अलग कट कर रहने से रोक नही सकते? क्या केवल बस में एक दो सीट बुजुर्गों के लिए आरक्षित करवा कर या वृधाश्रमों का निर्माण करवाकर हम उनके प्रति अपने दायित्वों से पल्ला झड सकते हैं? क्या इतने भर से हमारे अपने बड़ों के प्रति हमारी निष्ठां की इतिश्री हो जाती है? इन् प्रश्नों का जवाब खोजे जाने की जरुरत है।
(पब्लिक सत्ता में ७ फरबरी, 200७ को प्रकाशित लेख के अंश )

सोमवार, 17 मई 2010

इकलौता मुसलमान......


चैन्ने की वजाहत मस्जिद के उस बरामदे में देर रात तक ६ लोग कलम, स्याही, रूलर की मदद से ३ घंटों में ४ कोरे पन्नों को "मुसलमान" नामक अखबार में बदल देते हैं।

फिलवक्त वह दुनिया का एकलौता हस्तलिखित अखबार है। पिछले ८१ सालों से कुल ६ लोगों क स्टाफ की बदोलत रोजान अपने २२ हज़ार पाठकों तक पंहुच रहा है। तक़रीबन ८०० वर्ग मीटर के दाएरे में बने उस एक कमरे के कार्यालय में तो एसी की ठंडक है और न ही प्रकाश की आधुनिकतम व्यवस्था। न कंप्यूटर है और न ही कोई टाइप राईटर। वंहा अगर कुछ अहि तो बस लोगों की लगन और मेहनत, जिसने "मुसलमान" नामक उर्दू अखबार को सबसे अलहदा बाबा दिया है।


'पिछले ८१ सालों से हम सब इसी तरह मिलजुलकर काम कर रहे हैं। जिंदगी ने साथ न निभाया हो या उम्र का तकाजा हो तो और बात है, लेकिन कभी कोई कर्मचारी यंहा से नौकरी छोड़ कर नहीं गया है।' यह कहते हुए रहमान हुसैनी गर्व से भर जाते हैं। हुसैनी इस समय देश के सबसे पुराने और सम्प्रति एकलौते हस्तलिखित उर्दू अखबार में चीएफ़ कॉपी राईटर के ओहदे पर काम कर रहे हैं। २० साल पहले रहमान ने इस उर्दू अखबार में खजांची की हसियत से काम करना शुरू किया था। फिर धीरे-धीरे उर्दू में कैलीग्राफी सिखने और खबरों में दिलचस्पी बढ़ने के साथ उन्होंने अखबार के पन्नों को भी देखना शुरू कर दिया। रहमान ही नहीं बल्कि इस अखबार से जुड़े बाकि कर्मचारी भी कई-कई सालों से इस उर्दू दैनिक में कार्यरत हैं। इसके पीछे वजह सिर्फ एक ही है और वह है की यंहा स्टाफ व्यावसायिक मानसिकता से नही बल्कि एक परिवार की भावना से काम कर रहा है।

चैने क त्रिप्लिकाने हाई रोड ऑफिस में स्थित "मुसलमान" अखबार को १९७२ में सैयद फैजुल्लाह ने अपने वालिद सैयद अज्मतुल्ला के सरंषद में शुरू किया था। सैयद फैजुल्लाह ने एक संपादक की हैसियत से अखबार को तरक्की देने के लिए अपनी साडी जिंदगानी इसी के नाम कर दी। दो साल पहले ७८ साल की उम्र में सैयद साहब दुनिया से रुखसत हो गए। लेकिन किसी के जाने से जिंदगी कान्हा रूकती है। पिछले ८१ सालों से अपने पाठकों का यह प्रिय अखबार रोजाना बदस्तूर महज ७५ पैसों में उन तक पहुँच रहा है। इतने सालों में कुछ भी नही बदला है। न तो करमचारियों के जज्बे में कोई फर्क आया है और न ही काम के तौर-तरीकों में। आज भी ८०० वर्ग मीटर के उस कमरे में जन्हा प्रिंटिंग का काम भी होता है। चारों तरफ बिखरे कागज के बीच अख्व्बार का सारा स्टाफ बड़ी तालिन्न्त्ता से अपने काम में व्यस्त मिलता है। कॉपी एडिटर्स देर रात तक बैठकर कलम और स्याही के जरिये ४ कोरे पन्नों पैर उर्दू भाषा में खबरों को बारीकी से उकेर्तें हैं। पहले पन्ने पर देश-दुनिया की प्रमुख खबरों को जगह मिलती है और दुसरे तीसरे पन्ने पर स्थानीय खबरें दी जाती हैं। चौथा पन्ना खेल जगत के समाचारों का रहता है। अखबार में विज्ञापन लगाने के बाद समाचार में लिखाई का काम होता है। गलतियों पर विशेष ध्यान दिया जाता है क्यूंकि एक भी गलती हो जाने पैर पूरा समाचार पत्र दुबारा बनाना पड़ता है। सैयेर साहब के बेटे आरिफ का कहना है की उनके अखबार "मुसलमान" के २२ हज़ार खरीददारों में से अधिकतर ऐसे हैं जिन्हें केवल उर्दू पड़ना ही आता है। वह भी अपने पाठकों का ख्याल रखकर खबरों का चुनाव करते हैं। न्यू डेल्ही, कोलकत्ता, हैदराबाद आदि जगहों में आखबार के संवादाता हैं। जो फ़ोन फाक्स आदि के जरिये खबरें भेजते हैं। बदती प्रसार संख्या के बावजूद भी अखबार ज्यादा मुनाफ्फा नहीं कम पता है। लेकिन संस्था ने हिमात नही हरी है। "हम साफ़ नियत से अपना काम कर रहे हैं और हमें पूरा यकीं है की हम मिलकर "मुसलमान" अकबार को बुलंद मुकाम तक जरुर पहुंचाएंगे।" यह कहते हुए आरिफ की आँखों में उम्मीद की एक चमक तैर गयी।